Chapter 3 सवैया और कवित्त Class 10 Hindi Kshitij NCERT Summary
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Chapter 3 सवैया और कवित्त Class 10 Hindi Kshitij NCERT Notes
कवि परिचय
कवि देव का जन्म सन् 1673 में उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में हुआ। उनका पूरा नाम देवदत्त द्विवेदी था। वे औरंगजेब के पुत्र आलमशाह के आश्रय में आए पर वहां उनका मन नहीं लगा | उन्हें सर्वाधिक संतोष और सम्मान आश्रयदाता भोगीलाल से प्राप्त हुआ। देव रीतिकाल के प्रमुख कवि हैं। अलंकारिता और श्रृंगारिकता काव्य की प्रमुख विशेषताएँ हैं। इनकी काव्य ग्रंथों की संख्या 52 से 72 तक मानी जाती है। इनकी मृत्यु सन 1767 में हुई।
प्रमुख ग्रन्थ – रसविलास, भावविलास, काव्यरसायन, भवानीविलास।
सवैया का भावार्थ
पाँयनि नूपुर मंजू बजै,कटि किंकिनि कै धुनि की मधुराई।
सांवरे अंग लसै पट पीत,हिय हुलसै बनमाल सुहाई।
माथे किरीट बड़े दृग चंचल,मंद हँसी मुख चन्द जुन्हाई।
जै जग-मंदिर-दीपक सुंदर,श्रीबजदूलह ‘देव’ सहाई||
शब्दार्थ: पाँयनि – पैरों में, नूपुर – पाजेब, पायल, मंजु – सुंदर, कटि – कमर, किंकिनि – कमर में पहनने वाला आभूषण, धनि – ध्वनि, आवाज़, मधराई – मीठी, साँवरे – साँवला रंग, लसै – सुशोभित, पट – वस्त्र, पीत – पीला, हिये – हृदय या छाती पर, हुलसै – आनंदित होना, बनमाल – वनफूलों की माला, सुहाई – अच्छी लगती है, माथे – सिर पर, किरीट – मुकुट, दृग – नयन, नेत्र, मुखचंद – मुख रूपी चंद्रमा, जुन्हाई – चाँदनी, जगमंदिर – जग रूपी मंदिर, सहाई – सहायता करने वाला।
प्रस्तुत सवैया में कवि देव ने श्रीकृष्ण के रूप सौन्दर्य का मनोहारी वर्णन किया है। कवि कहते हैं कि उनके पैरों में सुशोभित हो रही पायल रुन-झुन की मधुर आवाज़ पैदा कर रही है और उनके कमर पर जो करधनी है, वह भी बज रही है। कृष्ण के चलने से नूपुर और करधनी दोनों मधुर ध्वनि उत्पन्न कर रहे हैं। उनके साँवले-सलोने शरीर पर सुंदर पीले वस्त्र शोभित हो रहे हैं तथा हृदय पर वनमाला (वैजयन्ती माला) सुशोभित हो रही है। मस्तक पर मुकुट है तथा नेत्र बड़े-बड़े और चंचल है। श्रीकृष्ण की मन्द-मन्द मुस्कुराहट चंद्रमा की किरणों के समान सुंदर हैं ऐसे श्रीकृष्ण इस संसार रूपी-मंदिर के दीपक के समान हैं। कवि कहते हैं कि वे तो संपूर्ण ब्रज के दूल्हा हैं और कवि देव की सहायता करने वाले परम हितैषी हैं।
काव्य सौंदर्य
- ब्रज भाषा का प्रयोग हुआ है।
- कहीं-कहीं तत्सम शब्द भी मिलते हैं, जैसे- नूपुर, किरीट, दृग, कटि आदि।
- कटि किंकिनि, पट पीत, हिये हुलसै में अनुप्रास अलंकार है।
- मुखचंद, जग-मंदिर-दीपक में रूपक अलंकार का प्रयोग हुआ है।
- इसमें वात्सल्य रस और माधुर्य गुण है।
- भाषा में गीतात्मकता का गुण है।
कवित्त – 1 का भावार्थ
डार द्रुम पलना बिछौना नव पल्लव के,
सुमन झिंगुला सोहै तन छबि भारी दै।
पवन झुलावै, केकी-कीर बतरावैं ‘देव’,
कोकिल हलावै-हुलसावै कर तारी दै।।
पूरित पराग सों उतारो करै राइ नोन,
कंजकली नायिका लतान सिर सारी दै।
मदन महीप जू को बालक बसंत ताहि,
प्रातही जगावत गुलाब चटकारी दै।।
शब्दार्थ: द्रुम – पेड़, पलना – झूला, नव – नया, पल्लव – पत्ता, सुमन झिंगूला – फूलों का झबला, सोहै – सुशोभित होता है, तन – शरीर, देह, छबि – सुंदरता, आभा, केकी – मोर, कीर – तोता, झुलावै – झुलाता है, कोकिल – कोयल, बतरावैं – बातें करते हैं, प्रातहि – सुबहसुबह, प्रातःकाल, जगावत – जगाता है, मदन – कामदेव, महीप – राजा, हलावै – हलावत, बातों की मिठास, हलसावै – आनंदित करता है, कर तारी दै – ताली बजाकर, पूरित – भरा हुआ, पराग – मकरंद, उतारो करै राई नोन – जिस बच्चे को नज़र लगी हो उसके सिर के चारों ओर राई, नमक घुमाकर आग में जलाने का टोटका, कंजकली – कमल की कली, चटकारी दै – चुटकी बजाकर।
कवि ने उपर्युक्त पंक्तियों में वसंत ऋतु के आगमन की तुलना एक शिशु से की हैं इसमें कवि ने वसंत ऋतु का बालक के रूप में मानवीकरण किया है। कवि कहते हैं कि वसंत रूपी बालक का पलना (झूला) पेड़ों की टहनियाँ हैं और नई-नई कोमल पत्तियों से बना उसका बिछौना बहुत मुलायम एवं आरामदेह है। वसंत रूपी बालक के शरीर पर फूलों से बना झबला सुशोभित हो रहा है। वायु बहने से जब पेड़ की डालियाँ हिलने लगती हैं, तो कवि को ऐसा लगता है कि मानो वायु उसके पालने को झुला रही है। मोर और तोता उससे बातें कर रहे हैं और कोयल मानो
अपनी बातों की मिठास से और ताली बजाकर उसे प्रसन्न कर रही है। कमल की कली रूपी नायिका लता रूपी साड़ी को सिर पर लेकर पराग कणों को उड़ाती हुई ऐसी प्रतीत होती है मानो राई नमक से बालक की नजर उतार रही हो। कवि के अनुसार कामदेव जो राजा हैं, उनका पुत्र है यह वसंत और सुबह-सुबह उसे चुटकी बजाकर गुलाब जगाता है। इस प्रकार वसंत ऋतु में प्रकृति में उपलब्ध सारी चीज़ों का कवि एक-एक कर वर्णन करते हैं।
काव्य सौंदर्य
- ब्रज भाषा का प्रयोग हुआ है तथा कवित्त छंद है।
- कवि ने बसंत को एक शिशु के रूप में देखा है। इसमें मानवीकरण अलंकार है।
- केकी कीर, हलावै-हुलसावै, पूरित पराग, मदन महीप और बालक बसंत में अनुप्रास अलंकार की निराली छटा है|
- सुमन झिंगूला, कंजकली नायिका, मदन महीप आदि में रूपक अलंकार है।
- ‘पूरित पराग सों उतारो करै राई नोन’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
कवित्त – 2 का भावार्थ
फटिक सिलानि सौं सुधारयौं सुधा मंदिर,
उदधि दधि को सो अधिकाई उमगे अमंद।
बाहर ते भीतर लौं भीति न दिखैए देव,
दूध को सो फेन फैल्यौ आँगन फरसबंद।
तारा सी तरुनि तामे ठाढी झिलमिल होति,
मोतिन की जोति मिल्यो मल्लिका को मकरंद।
आरसी से अंबर में आभा सी उजारी लगै,
प्यारी राधिका को प्रतिबिम्ब सो लगत चंद॥
शब्दार्थ: फटिक – स्फटिक, सफ़ेद अपारदर्शी रत्न, सिलानि – चट्टान पर, सुधा – अमृत, उदधि – सागर, दधि – दही, उमगे – उमड़ना, अमंद – जो कभी मंद न पड़े, भीति – दीवार, फेन – झाग, फरसबंद – फर्श पर, तामें – उसमें, ठाढ़ी – खड़ी, झिलमिली होति – जगमगाती होती, जोति – ज्योति, आभा, मल्लिका – एक प्रकार का सफ़ेद सुगंधित फूल, मकरंद – फूलों का रस, आरसी – आइना, दर्पण, शीशा, अंबर – आकाश, उजारी – उज्ज्वल, प्रतिबिंब – परछाईं।
इन पंक्तियों में कवि ने पूर्णिमा की चांदनी रात की सुंदरता का वर्णन किया है। पूर्णिमा की रात की सुंदरता का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि ऐसा लगता है कि स्फटिक की शिलाओं से आकाश में अमृत रूपी मंदिर का निर्माण किया गया है। प्रकृति में चारों ओर बिखरी चाँदनी को देखकर कवि को ऐसा लगता है मानो दही का सागर उमड़ता चला आ रहा है। कवि देव कहते हैं कि इस सुधा-मंदिर की दीवार भीतर-बाहर कहीं से भी दिखाई नहीं पड़ रही है और इसके आँगन के फर्श पर मानो दूध का झाग फैला पड़ा है। इस चाँदनी रात्रि रूपी अमृत मंदिर में जो झिलमिलाते तारे दिखाई पड़ रहे हैं मानो वे सब सुंदरी सुसज्जित युवतियाँ खड़ी हैं जिनके आभूषणों की आभा मल्लिका पुष्प के मकरंद से मिली मोती की ज्योति के समान है। संपूर्ण वातावरण इतना उज्ज्वल शुभ्र है कि आकाश मानो स्वच्छ दर्पण है जिसमें राधा का मुखचंद्र प्रतिबिंबित हो रहा है। यहाँ कवि ने चंद्रमा की तुलना राधा के सुंदर मुखड़े से की है।
काव्य सौंदर्य
- प्रस्तुत कवित्त ब्रजभाषा में रचित है, जिसमें तत्सम शब्दों का पुट मिलता है, जैसे – सुधा, उदधि, दधि, प्रतिबिंब आदि।
- अलंकारों की निराली छटा सर्वत्र दिखाई देती है जैसे अनुप्रास, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि।
- कवि की निराली कल्पना चाँदनी रात की शोभा को दुगुना कर देती है।