Chapter 17 संस्कृति Class 10 Hindi Kshitij NCERT Summary
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Chapter 17 संस्कृति Class 10 Hindi Kshitij NCERT Notes
यह पाठ एक निबंध है जिसमें लेखक ने सभ्यता और संस्कृति के बारे में बताया है| अनेक उदाहरणों के माध्यम से संस्कृति और सभ्यता की परिभाषा बताने की कोशिश की है। लेखक सभ्यता को संस्कृति का परिणाम बताते हुए कहता है कि मानव संस्कृति का बँटवारा नहीं किया जा सकता है। जो लोग संस्कृति का बँटवारा करना चाहते हैं, उन्हें देखकर लेखक दुखी होता है।
लेखक परिचय
भदंत आनंद कौसल्यायन का जन्म अम्बाला जिले के सोहाना गांव में सन 1905 में हुआ था। उनके बचपन का नाम हरनाम दास था। उन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलेज से बी.ए. किया । बौद्ध भिक्षु के रूप में देश-विदेश में भ्रमण करते हुए उन्होंने हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य के विकास के लिए सराहनीय प्रयास किया । वे लम्बे समय तक गांधी जी के साथ वर्धा में रहे। उन्होंने हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग और राष्ट्र भाषा प्रचार समिति, वर्धा के माध्यम से देश-विदेश में हिंदी का प्रचार-प्रसार किया। उनके निबंध, संस्मरण और यात्रा वृतांत सरल, सहज और साधारण बोलचाल की भाषा में लिखे हुए हैं। सन 1988 में उनका निधन हो गया।
संस्कृति Class 10 Hindi Kshitij NCERT Summary
संस्कृति निबंध में लेखक ने सभ्यता और संस्कृति के अंतर को स्पष्ट किया है। लेखक के अनुसार संस्कृति और सभ्यता ये दो ऐसे शब्द हैं जिनका प्रयोग दैनिक जीवन में बहुत होता है, पर इनके अर्थ बहुत कम समझ में आते हैं। जब इनके आगे अनेक विशेषण जैसे भौतिक सभ्यता और आध्यात्मिक सभ्यता लग जाते हैं तो इनका जो थोड़ा बहुत अर्थ समझ में आता है वह भी गलत-सलत हो जाता है। इन शब्दों को समझने के लिए लेखक ने दो उदाहरण दिए हैं।
अग्नि का उदाहरण: लेखक ने सभ्यता, संस्कृति के अर्थ को समझाने के लिए पहला उदाहरण दिया है कि जब मानव-समाज का अग्नि देवता से साक्षात्कार नहीं हुआ था तब आदमी ने अग्नि का आविष्कार किया। जिस आदमी ने अग्नि का आविष्कार किया होगा, वह कितना बड़ा आविष्कारकर्ता रहा होगा।
सुई-धागे का उदाहरण: जिस मनुष्य के दिमाग में सुई-धागे की बात पहली बार आई होगी कि लोहे के एक टुकड़े को घिसकर उसके एक सिरे पर छेदकर, छेद में धागा डालकर कपड़े के दो टुकड़े एक साथ जोड़े जा सकते हैं। वह कितना बड़ा आविष्कारकर्ता रहा होगा।
संस्कृति और सभ्यता का अर्थ जिस योग्यता, प्रवृत्ति या प्रेरणा के बल पर आग का व सुई-धागे का आविष्कार हुआ वह व्यक्ति विशेष की संस्कृति है और उस संस्कृति द्वारा जो वस्तु अस्तित्व में आई वह है व्यक्ति विशेष की सभ्यता । इसलिए जिस व्यक्ति की सोच जितनी अधिक परिष्कृत होगी उसके द्वारा किया हुआ आविष्कार भी उतना ही परिष्कृत होगा तथा वह व्यक्ति भी उतना ही अधिक सुसंस्कृत होगा।
एक सुसंस्कृत व्यक्ति किसी चीज की खोज करता है और वह चीज़ संतान को अनायास ही प्राप्त हो जाती है। यहाँ संतान अपने पिता की तरह सभ्य भले ही बन जाए किंतु वह पिता (पूर्वज) की तरह सुसंस्कृत नहीं बन सकता है। जैसे न्यूटन एक संस्कृत मानव था, उसने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का आविष्कार किया। आज उस सिद्धांत से भौतिक विज्ञान के सभी विद्यार्थी परिचित ही नहीं, अपितु और भी अनेक बातों का ज्ञान रखते हैं। ऐसे विद्यार्थियों को न्यूटन की अपेक्षा अधिक सभ्य भले ही कह सकते हैं, कि न्यूटन जितना संस्कृत नहीं कह सकते हैं।
आग के आविष्कार के पीछे पेट को भरने की प्रेरणा रही होगी। इसी प्रकार सुई-धागे के आविष्कार के पीछे शीतोष्ण से बचने और अपने शरीर को सजाने की प्रेरणा प्रमुख रही होगी। लेखक का मानना है कि यदि किसी व्यक्ति का पेट भरा हुआ है और तन पर कपड़े भी हैं तो वह रात में आकाश में तारों को देखकर निठल्ला नहीं बैठ सकता । इस प्रकार का व्यक्ति तारों के रहस्य को जानने के लिए प्रयास करेगा तो इस प्रकार का व्यक्ति संस्कृत व्यक्ति होगा। अतः संस्कृति का जनक वही है जो भौतिक कारणों से नहीं अपितु अपने अन्दर की सहज जिज्ञासा के कारण ज्ञान की प्राप्ति करता है। संस्कृति का दूसरा हिस्सा हमें ऐसे ही मनीषियों से मिला है।
जो अपने मुँह की ओर ले जाते हुए कौर को दूसरे के मुँह में डाल देते हैं। रोगी बच्चे को गोद में लिए हुए सारी रात माँ बैठी रहती है। ऐसा सुना जाता है कि रूस का भाग्यविधाता लेनिन डबल रोटी के सूखे टुकड़े स्वयं न खाकर दूसरों को खिला देता था। संसार के मजदूरों को सुखी देखने के लिए कार्ल मार्क्स ने अपना सारा जीवन दुख में बिता दिया। सिद्धार्थ ने अपना घर केवल इसलिए त्याग दिया था जिससे तृष्णा के कारण लड़ती-कटती मानवता सुख से रह सके। इस तरह ऐसी योग्यता जो किसी महामानव से सर्वस्व त्याग कराती है वह संस्कृति है।
संस्कृति का परिणाम है सभ्यता। हमारे खाने-पीने के तरीके, हमारे ओढ़ने, पहनने के तरीके, हमारे आने-जाने के साधन, हमारे परस्पर कट-मरने के तरीके; सब हमारी सभ्यता हैं। मानव की जो योग्यता उससे आत्मविनाश के साधनों का आविष्कार कराती है उसे संस्कृति या असंस्कृति-क्या कहें? इसी प्रकार जिन साधनों के बल पर आदमी आत्म-विनाश में जुटा है, उन्हें हम उसकी सभ्यता समझें या असभ्यता। संस्कृति का यदि कल्याण की भावना से नाता टूट गया तो वह असंस्कृति होकर ही रहेगी और ऐसी संस्कृति का अवश्यंभावी परिणाम असभ्यता के अतिरिक्त दूसरा क्या होगा? इसलिए मानव संस्कृति एक अविभाज्य वस्तु है और उसमें जितना अंश कल्याण का है, वह अकल्याणकर की अपेक्षा श्रेष्ठ ही नहीं स्थायी भी है।
शब्दार्थ
आध्यात्मिक – परमात्मा या आत्मा से संबंध रखने वाला, मन से संबंध रखने वाला, परिष्कृत – शुद्ध किया हुआ, अनायास – बिना किसी प्रयास के, शीतोष्ण – ठंडा और गरम, निठल्ला – बिना काम के, स्थूल – मोटा, मनीषियों-विद्वानों, वशीभूत – वश में होना, ज्ञानेप्सा – ज्ञान की इच्छा, तृष्णा – और अधिक पाने की इच्छा, गमना-गमन – आवागमन, अवश्यंभावी – जिसका होना निश्चित हो, अविभाज्य – जो बाँटा न जा सके।