Chapter 2 राजा, किसान और नगर Class 12 History Notes In Hindi

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Chapter 2 राजा, किसान और नगर Kings Farmers and Towns Class 12 History Notes In Hindi

हड़प्पा सभ्यता के बाद डेढ़ हज़ार वर्षों के लंबे अंतराल में उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में कई प्रकार के विकास हुए। यही वह काल था जब सिंधु नदी और इसकी उपनदियों के किनारे रहने वाले लोगों द्वारा ऋग्वेद का लेखन किया गया।

ईसा पूर्व छठी शताब्दी से नए परिवर्तनों के प्रमाण में सबसे ज़्यादा मुखर आरंभिक राज्यों, साम्राज्यों और रजवाड़ों का विकास है| इतिहासकार इस प्रकार के विकास का आकलन करने के लिए अभिलेखों, ग्रंथों, सिक्कों तथा चित्रों जैसे विभिन्न प्रकार के स्रोतों का अध्ययन करते हैं।

प्रमुख राजनितिक और आर्थिक विकास

लगभग 600-500 ई.पू.धान की रोपाई; गंगा घाटी में नगरीकरण; महाजनपद; आहत सिक्के
लगभग 500-400 ई.पू.मगध के शासकों की सत्ता पर पकड़
लगभग 327-325 ई.पू.सिकंदर का आक्रमण
लगभग 321 ई.पू.चंद्रगुप्त मौर्य का राज्यारोहण
लगभग 272/268-231 ई.पू.असोक का शासन
लगभग 185 ई.पू.मौर्य साम्राज्य का अंत
लगभग 200-100 ई.पू.पश्चिमोत्तर में शक शासन; दक्षिण भारत में चोल, चेर व पांड्य; दक्कन में सातवाहन
लगभग 100 ई.पू. से-200 ई. तकपश्चिमोत्तर के शक (मध्य एशिया के लोग ) शासक; रोमन व्यापार; सोने के सिक्के
लगभग 78 ई.पू.कनिष्क का राज्यारोहण
लगभग 100 से 200 ई.सातवाहन और शक शासकों द्वारा भूमिदान के अभिलेखीय प्रमाण
लगभग 320 ई.गुप्त शासन का आरंभ
लगभग 335-375 ई.समुद्रगुप्त
लगभग 375-415 ई.चंद्रगुप्त द्वितीय; दक्कन में वाकाटक
लगभग 500-600 ई.कर्नाटक में चालुक्यों का उदय और तमिलनाडु में पल्लवों का उदय
लगभग 606-647 ई.कन्नौज के राजा हर्षवर्धन; चीनी यात्री श्वैन त्सांग की यात्रा
लगभग 712 ई.अरबों की सिंध पर विजय

प्रिंसेप और पियदस्सी

भारतीय अभिलेख विज्ञान में एक उल्लेखनीय प्रगति 1830 के दशक में हुई, जब ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अधिकारी जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का अर्थ निकाला। इन लिपियों का उपयोग सबसे आरंभिक अभिलेखों और सिक्कों में किया गया है।

इस शोध से आरंभिक भारत के राजनीतिक इतिहास के अध्ययन को नयी दिशा मिली| परिणामस्वरूप बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों तक उपमहाद्वीप के राजनीतिक इतिहास का एक सामान्य चित्र तैयार हो गया|

प्रारंभिक राज्य

सोलह महाजनपद

आरंभिक भारतीय इतिहास में छठी शताब्दी ई. पू. को एक महत्वपूर्ण परिवर्तनकारी काल माना जाता है। इस काल को प्रायः आरंभिक राज्यों, नगरों, लोहे के बढ़ते प्रयोग और सिक्कों के विकास के साथ जोड़ा जाता है|

इसी काल में बौद्ध तथा जैन सहित विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं का विकास हुआ। बौद्ध और जैन धर्म के आरंभिक ग्रंथों में महाजनपद नाम से सोलह राज्यों का उल्लेख मिलता है। यद्यपि महाजनपदों के नाम की सूची इन ग्रंथों में एकसमान नहीं है लेकिन वज्जि, मगध, कोशल, कुरु, पांचाल, गांधार और अवन्ति जैसे नाम प्रायः मिलते हैं।

अधिकांश महाजनपदों पर राजा का शासन होता था लेकिन गण और संघ के नाम से प्रसिद्ध राज्यों में कई लोगों का समूह शासन करता था, इस समूह का प्रत्येक व्यक्ति राजा कहलाता था। प्रत्येक महाजनपद की एक राजधानी होती थी जिसे प्रायः किले से घेरा जाता था। किलेबंद राजधानियों के रख-रखाव और प्रारंभी सेनाओं और नौकरशाही के लिए भारी आर्थिक स्रोत की आवश्यकता होती थी।

लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व से संस्कृत में ब्राह्मणों ने धर्मशास्त्र नामक ग्रंथों की रचना शुरू की।

धीरे-धीरे कुछ राज्यों ने अपनी स्थायी सेनाएँ और नौकरशाही तंत्र तैयार कर लिए। बाकी राज्य अब भी सहायक-सेना पर निर्भर थे जिन्हें प्राय: कृषक वर्ग से नियुक्त किया जाता था।

सोलह महाजनपदों में प्रथम : मगध

छठी से चौथी शताब्दी ई. पू. में मगध ( आधुनिक बिहार ) सबसे शक्तिशाली महाजनपद बन गया।

कारण: एक यह कि मगध क्षेत्र में खेती की उपज खास तौर पर अच्छी होती थी। दूसरे यह कि लोहे की खदानें ( आधुनिक झारखंड में) भी आसानी से उपलब्ध थीं जिससे उपकरण और हथियार बनाना सरल होता था। जंगली क्षेत्रों में हाथी उपलब्ध थे जो सेना के एक महत्वपूर्ण अंग थे। साथ ही गंगा और इसकी उपनदियों से आवागमन सस्ता व सुलभ होता था।

प्रारंभ में, राजगाह (आधुनिक बिहार के राजगीर का प्राकृत नाम) मगध की राजधानी थी। पहाड़ियों के बीच बसा राजगाह एक किलेबंद शहर था। बाद में चौथी शताब्दी ई. पू. में पाटलिपुत्र को राजधानी बनाया गया, जिसे अब पटना कहा जाता है जिसकी गंगा के रास्ते आवागमन के मार्ग पर महत्वपूर्ण अवस्थिति थी।

एक आरंभिक साम्राज्य

मगध के विकास के साथ-साथ मौर्य साम्राज्य का उदय हुआ। मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य ( लगभग 321 ई. पू.) का शासन पश्चिमोत्तर में अफ़गानिस्तान और बलूचिस्तान तक फैला था।

उनके पौत्र असोक ने जिन्हें आरंभिक भारत का सर्वप्रसिद्ध शासक माना जा सकता है, कलिंग (आधुनिक उड़ीसा) पर विजय प्राप्त की।

मौर्यवंश के बारे में जानकारी प्राप्त करना

मौर्य साम्राज्य के इतिहास की रचना के लिए इतिहासकारों ने विभिन्न प्रकार के स्रोतों का उपयोग किया है। इनमें पुरातात्विक प्रमाण भी शामिल हैं, विशेषतया मूर्तिकला।

मौर्यकालीन इतिहास के पुनर्निर्माण हेतु समकालीन रचनाएँ भी मूल्यवान सिद्ध हुई हैं, जैसे चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में आए यूनानी राजदूत मेगस्थनीज़ द्वारा लिखा गया विवरण।

एक और स्रोत जिसका उपयोग प्रायः किया जाता है, वह है अर्थशास्त्र । संभवतः इसके कुछ भागों की रचना कौटिल्य या चाणक्य ने की थी जो चंद्रगुप्त के मंत्री थे।

पत्थरों और स्तंभों पर मिले असोक के अभिलेख प्रायः सबसे मूल्यवान स्रोत माने जाते हैं। असोक वह पहला सम्राट था जिसने अपने अधिकारियों और प्रजा के लिए संदेश प्राकृतिक पत्थरों और पॉलिश किए हुए स्तंभों पर लिखवाए थे। असोक ने अपने अभिलेखों के माध्यम से धम्म का प्रचार किया। इनमें बड़ों के प्रति आदर, संन्यासियों और ब्राह्मणों के प्रति उदारता, सेवकों और दासों के साथ उदार व्यवहार तथा दूसरे के धर्मों और परंपराओं का आदर शामिल हैं।

साम्राज्य का प्रशासन

मौर्य साम्राज्य के पाँच प्रमुख राजनीतिक केंद्र थे, राजधानी पाटलिपुत्र और चार प्रांतीय केंद्र-तक्षशिला, उज्जयिनी, तोसलि और सुवर्णगिरि । इन सबका उल्लेख असोक के अभिलेखों में किया गया है।

सबसे प्रबल प्रशासनिक नियंत्रण साम्राज्य की राजधानी तथा उसके आसपास के प्रांतीय केंद्रों पर थी। इन केंद्रों का चयन बड़े ध्यान से किया गया। तक्षशिला और उज्जयिनी दोनों लंबी दूरी वाले महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग पर स्थित थे जबकि सुवर्णगिरि (अर्थात् सोने के पहाड़) कर्नाटक में सोने की खदान के लिए उपयोगी था।

मेगस्थनीज़ ने सैनिक गतिविधियों के संचालन के लिए एक समिति और छः उपसमितियों का उल्लेख किया है। इनमें से एक का काम नौसेना का संचालन करना था, तो दूसरी यातायात और खान-पान का संचालन करती थी, तीसरी का काम पैदल सैनिकों का संचालन, चौथी का अश्वारोहियों, पाँचवीं का रथारोहियों तथा छठी का काम हाथियों का संचालन करना था।

दूसरी उपसमिति का दायित्व विभिन्न प्रकार का था : उपकरणों के ढोने के लिए बैलगाड़ियों की व्यवस्था, सैनिकों के लिए भोजन और जानवरों के लिए चारे की व्यवस्था करना तथा सैनिकों की देखभाल के लिए सेवकों और शिल्पकारों की नियुक्ति करना|

असोक ने अपने साम्राज्य को अखंड बनाए रखने का प्रयास धम्म के प्रचार द्वारा भी किया। धम्म के सिद्धांत बहुत ही साधारण और सार्वभौमिक थे। असोक के अनुसार धम्म के माध्यम से लोगों का जीवन इस संसार में और इसके बाद के संसार में अच्छा रहेगा। धम्म के प्रचार के लिए धम्म महामात्त नाम से विशेष अधिकारियों की नियुक्ति की गई।

मौर्य साम्राज्य कितना महत्वपूर्ण था?

उन्नीसवीं और आरंभिक बीसवीं सदी के भारतीय इतिहासकारों को प्राचीन भारत में एक ऐसे साम्राज्य की संभावना बहुत चुनौतीपूर्ण तथा उत्साहवर्धक लगी। साथ ही प्रस्तर मूर्तियों सहित मौर्यकालीन सभी पुरातत्व एक अद्भुत कला के प्रमाण थे जो साम्राज्य की पहचान माने जाते हैं।

बीसवीं सदी के राष्ट्रवादी नेताओं ने भी असोक को प्रेरणा का स्रोत माना।

मौर्य साम्राज्य उपमहाद्वीप के सभी क्षेत्रों में नहीं फैल पाया था । यहाँ तक कि साम्राज्य की सीमा के अंतर्गत भी नियंत्रण एकसमान नहीं था। दूसरी शताब्दी ई.पू. आते-आते उपमहाद्वीप के कई भागों में नए-नए शासक और रजवाड़े स्थापित होने लगे।

राजधर्म के नवीन सिद्धांत

दक्षिण के राजा और सरदार

उपमहाद्वीप के दक्कन और उससे दक्षिण के क्षेत्र में स्थित तमिलकम (अर्थात् तमिलनाडु एवं आंध्र प्रदेश और केरल के कुछ हिस्से) में चोल, चेर और पाण्ड्य जैसी सरदारियों का उदय हुआ। ये राज्य बहुत ही समृद्ध और स्थायी सिद्ध हुए|

जानकारी के स्त्रोत- प्राचीन तमिल संगम ग्रंथों में ऐसी कविताएँ हैं जो सरदारों का विवरण देती हैं कि उन्होंने अपने स्रोतों का संकलन और वितरण किस प्रकार से किया।

कई सरदार और राजा लंबी दूरी के व्यापार द्वारा राजस्व जुटाते थे। इनमें मध्य और पश्चिम भारत के क्षेत्रों पर शासन करने वाले सातवाहन (लगभग द्वितीय शताब्दी ई. पू. से द्वितीय शताब्दी ई. तक) और उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर और पश्चिम में शासन करने वाले मध्य एशियाई मूल के शक शासक शामिल थे।

दैविक राजा

राजाओं के लिए उच्च स्थिति प्राप्त करने का एक साधन विभिन्न देवी-देवताओं के साथ जुड़ना था। मध्य एशिया से लेकर पश्चिमोत्तर भारत तक शासन करने वाले कुषाण शासकों ने (लगभग प्रथम शताब्दी ई.पू. से प्रथम शताब्दी ई. तक) इस उपाय का सबसे अच्छा उद्धरण प्रस्तुत किया।

उत्तर प्रदेश में मथुरा के पास माट के एक देवस्थान पर कुषाण शासकों की विशालकाय मूर्तियाँ लगाई गई थीं। अफ़गानिस्तान के एक देवस्थान पर भी इसी प्रकार की मूर्तियाँ मिली हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इन मूर्तियों के ज़रिए कुषाण स्वयं को देवतुल्य प्रस्तुत करना चाहते थे।

चौथी शताब्दी ई. में गुप्त साम्राज्य सहित कई बड़े साम्राज्यों के साक्ष्य मिलते हैं। इनमें से कई साम्राज्य सामंतों पर निर्भर थे।

गुप्त शासकों का इतिहास साहित्य, सिक्कों और अभिलेखों की सहायता से लिखा गया है। साथ ही कवियों द्वारा अपने राजा या स्वामी की प्रशंसा में लिखी प्रशस्तियाँ भी उपयोगी रही हैं। उदाहरण के तौर पर, इलाहाबाद स्तंभ अभिलेख के नाम से प्रसिद्ध प्रयाग प्रशस्ति की रचना हरिषेण जो स्वयं गुप्त सम्राटों के संभवत: सबसे शक्तिशाली सम्राट समुद्रगुप्त के राजकवि थे, ने संस्कृत में की थी।

बदलता हुआ देहात

जनता में राजा की छवि

साधारण जनता द्वारा राजाओं के बारे में अपने विचारों और अनुभव के विवरण कम ही छोड़े गए हैं।

जातक और पंचतंत्र जैसे ग्रंथों में वर्णित कथाओं की समीक्षा करके इतिहासकारों ने पता लगाया है कि इनमें से अनेक कथाओं के स्रोत मौखिक किस्से-कहानियाँ हैं जिन्हें बाद में लिपिबद्ध किया गया होगा। जातक कथाएँ पहली सहस्राब्दि ई. के मध्य में पालि भाषा में लिखी गईं।

गंदतिन्दु जातक नामक एक कहानी में बताया गया है कि एक कुटिल राजा की प्रजा किस प्रकार से दुखी रहती है। जैसा कि इस कथा से पता चलता है कि राजा और प्रजा, विशेषकर ग्रामीण प्रजा, के बीच संबंध तनावपूर्ण रहते थे, क्योंकि शासक अपने राजकोष को भरने के लिए बड़े-बड़े कर की माँग करते थे जिससे किसान खासतौर पर त्रस्त रहते थे।

उपज बढ़ाने के तरीके

उपज बढ़ाने का एक तरीका हल का प्रचलन था। जिन क्षेत्रों में भारी वर्षा होती थी वहाँ लोहे के फाल वाले हलों के माध्यम से उर्वर भूमि की जुताई की जाने लगी। इसके अलावा गंगा की घाटी में धान की रोपाई की वजह से उपज में भारी वृद्धि होने लगी। हालाँकि किसानों को इसके लिए कमरतोड़ मेहनत करनी पड़ती थी।

उपज बढ़ाने का एक और तरीका कुओं, तालाबों और कहीं-कहीं नहरों के माध्यम से सिंचाई करना था। व्यक्तिगत तौर पर तालाबों, कुओं और नहरों जैसे सिंचाई साधन निर्मित करने वाले लोग प्रायः राजा या प्रभावशाली लोग थे जिन्होंने अपने इन कामों का उल्लेख अभिलेखों में भी करवाया।

ग्रामीण समाज में विभिन्नताएँ

यद्यपि खेती की इन नयी तकनीकों से उपज तो बढ़ी लेकिन इसके लाभ समान नहीं थे।

बड़े-बड़े ज़मींदार और ग्राम प्रधान शक्तिशाली माने जाते थे जो प्रायः किसानों पर नियंत्रण रखते थे। ग्राम प्रधान का पद प्रायः वंशानुगत होता था।

आरंभिक तमिल संगम साहित्य में भी गाँवों में रहने वाले विभिन्न वर्गों के लोगों का उल्लेख है, जैसे कि वेल्लालर या बड़े ज़मींदार; हलवाहा या उल्वर और दास अणिमई ।

भूमिदान और नए संभ्रात ग्रामीण

ईसवी की आरंभिक शताब्दियों से ही भूमिदान के प्रमाण मिलते हैं। इनमें से कई का उल्लेख अभिलेखों में मिलता है।

भूमिदान के जो प्रमाण मिले हैं वे साधारण तौर पर धार्मिक संस्थाओं या ब्राह्मणों को दिए गए थे।

अभिलेख से हमें ग्रामीण प्रजा का भी पता चलता है। इनमें ब्राह्मण, किसान तथा अन्य प्रकार के वर्ग शामिल थे जो शासकों या उनके प्रतिनिधियों को कई प्रकार की वस्तुएँ प्रदान करते थे।

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि भूमिदान शासक वंश द्वारा कृषि को नए क्षेत्रों में प्रोत्साहित करने की एक रणनीति थी, जबकि कुछ का कहना है कि राजा का शासन सामंतों पर दुर्बल होने लगा तो उन्होंने भूमिदान के माध्यम से अपने समर्थक जुटाने प्रारंभ कर दिए।

कुछ लोग ऐसे भी थे जिन पर अधिकारियों या सामंतों का नियंत्रण नहीं था: जैसे कि पशुपालक, संग्राहक, शिकारी, मछुआरे, शिल्पकार (घुमक्कड़ तथा लगभग एक ही स्थान पर रहने वाले) और जगह-जगह घूम कर खेती करने वाले लोग। सामान्यतः ऐसे लोग अपने जीवन और आदान-प्रदान के विवरण नहीं रखते थे।

नगर एवं व्यापार

नए नगर

अधिकांश नगर महाजनपदों की राजधानियाँ थे। प्रायः सभी नगर संचार मार्गों के किनारे बसे थे। पाटलिपुत्र जैसे कुछ नगर नदीमार्ग के किनारे बसे थे। उज्जयिनी जैसे अन्य नगर भूतल मार्गों के किनारे थे|

नगरीय जनसंख्या

संभ्रांत वर्ग और शिल्पकार

शासक वर्ग और राजा किलेबंद नगरों में रहते थे। साथ ही सोने चाँदी, कांस्य, ताँबे, हाथी दाँत, शीशे जैसे तरह-तरह के पदार्थों के बने गहने, उपकरण, हथियार, बर्तन, सीप और पक्की मिट्टी मिली हैं।

द्वितीय शताब्दी ई.पू. आते-आते हमें कई नगरों में छोटे दानात्मक अभिलेख प्राप्त होते हैं। इनमें दाता के नाम के साथ-साथ प्रायः उसके व्यवसाय का भी उल्लेख होता है।

कभी-कभी उत्पादकों और व्यापारियों के संघ का भी उल्लेख मिलता है जिन्हें श्रेणी कहा गया है।

उपमहाद्वीप और उसके बाहर का व्यापार

छठी शताब्दी ई.पू. से ही उपमहाद्वीप में नदी मार्गों और भूमार्गों का मानो जाल बिछ गया था और कई दिशाओं में फैल गया था। मध्य एशिया और उससे भी आगे तक भू-मार्ग थे।

शासकों ने प्रायः इन मार्गों पर नियंत्रण करने की कोशिश की और संभवतः वे इन मार्गों पर व्यापारियों की सुरक्षा के बदले उनसे धन लेते थे।

इन मार्गों पर चलने वाले व्यापारियों में पैदल फेरी लगाने वाले व्यापारी तथा बैलगाड़ी और घोड़े – खच्चरों जैसे जानवरों के दल के साथ चलने वाले व्यापारी होते थे।

नमक, अनाज, कपड़ा, धातु और उससे निर्मित उत्पाद, पत्थर, लकड़ी, जड़ी-बूटी जैसे अनेक प्रकार के सामान एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाए जाते थे। रोमन साम्राज्य में काली मिर्च, जैसे मसालों तथा कपड़ों व जड़ी-बूटियों की भारी माँग थी। इन सभी वस्तुओं को अरब सागर के रास्ते भूमध्य क्षेत्र तक पहुँचाया जाता था।

सिक्के और राजा

व्यापार के लिए सिक्के के प्रचलन से विनिमय कुछ हद तक आसान हो गया था। चाँदी और ताँबे के आहत सिक्के (छठी शताब्दी ई. पू.) सबसे पहले ढाले गए और प्रयोग में आए।

मुद्राशास्त्रियों ने सिक्कों का अध्ययन करके उनके वाणिज्यिक प्रयोग के संभावित क्षेत्रों का पता लगाया है।

शासकों की प्रतिमा और नाम के साथ सबसे पहले सिक्के हिंद-यूनानी शासकों ने जारी किए थे जिन्होंने द्वितीय शताब्दी ई.पू. में उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित किया था।

सोने के सिक्के बड़े पैमाने पर प्रथम शताब्दी ईसवी में कुषाण राजाओं ने जारी किए थे। इनके आकार और वज़न तत्कालीन रोमन सम्राटों तथा ईरान के पार्थियन शासकों द्वारा जारी सिक्कों के बिलकुल समान थे।

सोने के सिक्कों के व्यापक प्रयोग से संकेत मिलता है कि बहुमूल्य वस्तुओं और भारी मात्रा में वस्तुओं का विनिमय किया जाता था। दक्षिण भारत के अनेक पुरास्थलों से बड़ी संख्या में रोमन सिक्के मिले हैं जिनसे यह स्पष्ट है कि व्यापारिक तंत्र राजनीतिक सीमाओं से बँधा नहीं था|

पंजाब और हरियाणा जैसे क्षेत्रों के यौधेय ( प्रथम शताब्दी ई.) कबायली गणराज्यों ने भी सिक्के जारी किए थे| सोने के सबसे भव्य सिक्कों में से कुछ गुप्त शासकों ने जारी किए।

छठी शताब्दी ई. से सोने के सिक्के मिलने कम हो गए। इसके बारे में कुछ का कहना है कि रोमन साम्राज्य के पतन के बाद दूरवर्ती व्यापार में कमी आई जिससे उन राज्यों, समुदायों और क्षेत्रों की संपन्नता पर असर पड़ा जिन्हें दूरवर्ती व्यापार से लाभ मिलता था। अन्य का कहना है, कि इस काल में नए नगरों और व्यापार के नवीन तंत्रों का उदय होने लगा था। एक अर्थ यह भी हो सकता है कि सिक्के इसलिए कम मिलते हैं क्योंकि वे प्रचलन में थे और उनका किसी ने संग्रह करके नहीं रखा था|

मूल बातें

अभिलेखों का अर्थ कैसे निकाला जाता है?

ब्राह्मी लिपि का अध्ययन

आधुनिक भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त लगभग सभी लिपियों का मूल ब्राह्मी लिपि है। ब्राह्मी लिपि का प्रयोग असोक के अभिलेखों में किया गया है। अट्ठारहवीं सदी से यूरोपीय विद्वानों ने भारतीय पंडितों की सहायता से आधुनिक बंगाली और देवनागरी लिपि में कई पांडुलिपियों का अध्ययन शुरू किया|

कई दशकों बाद अभिलेख वैज्ञानिकों के अथक परिश्रम के बाद जेम्स प्रिंसेप ने असोककालीन ब्राह्मी लिपि का 1838 ई. में अर्थ निकाल लिया।

खरोष्ठी लिपि को कैसे पढ़ा गया?

पश्चिमोत्तर के अभिलेखों में खरोष्ठी लिपि का प्रयोग किया गया है। इस क्षेत्र में शासन करने वाले हिंद-यूनानी राजाओं (लगभग द्वितीय- प्रथम शताब्दी ई. पू.) द्वारा बनवाए गए सिक्कों से जानकारी हासिल करने में आसानी हुई है। इन सिक्कों में राजाओं के नाम यूनानी और खरोष्ठी में लिखे गए हैं। यूनानी भाषा पढ़ने वाले यूरोपीय विद्वानों ने अक्षरों का मेल किया।

अभिलेखों से प्राप्त ऐतिहासिक साक्ष्य

असोक के कई अभिलेखों में असोक का नाम नहीं लिखा है। उसमें असोक द्वारा अपनाई गई उपाधियों का प्रयोग किया गया है; जैसे कि देवानांपिय अर्थात् देवताओं का प्रिय और ‘पियदस्सी’ यानी ‘देखने में सुन्दर’।

इन अभिलेखों का परीक्षण करने के बाद अभिलेखशास्त्रियों ने पता लगाया कि उनके विषय, शैली, भाषा और पुरालिपिविज्ञान सबमें समानता है, अतः वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि इन अभिलेखों को एक ही शासक ने बनवाया था।

अभिलेख साक्ष्य की सीमा

अभिलेखों से प्राप्त जानकारी की भी सीमा होती है। कभी-कभी इसकी तकनीकी सीमा होती है : अक्षरों को हलके ढंग से उत्कीर्ण किया जाता है जिन्हें पढ़ पाना मुश्किल होता है। साथ ही, अभिलेख नष्ट भी हो सकते हैं जिनसे अक्षर लुप्त हो जाते हैं।

यद्यपि कई हज़ार अभिलेख प्राप्त हुए हैं लेकिन सभी के अर्थ नहीं निकाले जा सके हैं या प्रकाशित किए गए हैं या उनके अनुवाद किए गए हैं। इनके अतिरिक्त और अनेक अभिलेख रहे होंगे जो कालांतर में सुरक्षित नहीं बचे हैं। इसलिए जो अभिलेख अभी उपलब्ध हैं, वह संभवतः कुल अभिलेखों के अंश मात्र हैं।

यह ज़रूरी नहीं है कि जिसे हम आज राजनीतिक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण मानते हैं उन्हें अभिलेखों में अंकित किया ही गया हो। उदाहरण के तौर पर, खेती की दैनिक प्रक्रियाएँ और रोज़मर्रा की जिंदगी के सुख-दुख का उल्लेख अभिलेखों में नहीं मिलता है

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