Class 12 Antra Hindi Chapter 17 कुटज NCERT Summary
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Chapter 17 कुटज Class 12 Antra NCERT Notes
पाठ परिचय
‘कुटज’ एक जंगली फूल है जो सूखी शिलाओं के बीच हिमालय की ऊँचाई पर उगता है। हिमालय की चोटियों पर उगनेवाले ‘कुटज’ पौधे के माध्यम से लेखक ने मानव को विपरीत और कठिन परिस्थितियों में जीने का संदेश दिया है।
लेखक परिचय
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म सन् 1907 में बलिया जिले में आरत दूबे का छपरा में हुआ था। 1930 में, संस्कृत महाविद्यालय, काशी से शास्त्री की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने ज्योतिष में ज्योतिषाचार्य की उपाधि प्राप्त की। 1930 में शांति निकेतन में हिंदी के शिक्षक पद पर नियुक्त हुए। 1950 में वे काशी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष बने। 1960 में, उन्हें दस वर्ष तक इस पद पर रहने के बाद पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग का अध्यक्ष बनाया गया। यहाँ से निकलने के बाद, ये हिंदी को लेकर भारत सरकार की कई योजनाओं में शामिल रहे। भारत सरकार ने इन्हें पद्म भूषण की उपाधि दी और लखनऊ विश्वविद्यालय ने डी॰ लिट की उपाधि दी। सन्1978 में इनका देहावसान हो गया।
रचनाएँ – ‘सूर साहित्य’, ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’, ‘मध्यकालीन धर्म साधना’, ‘सूर और उनका काव्य’, ‘नाथ-संप्रदाय’, ‘कबीर’, ‘मेघदूत’, ‘एक पुरानी कहानी’, ‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’, ‘लालित्य मीमांसा’ आदि (समीक्षात्मक ग्रंथ)। बाणभट्ट की आत्मकथा’ ‘पुनर्नवा अनामदास का पोथा’ तथा ‘चारूचंद्रलेख’ (उपन्यास)। ‘अशोक के फूल’, ‘विचार प्रवाह’, ‘विचार और वितर्क’ ‘कुटज’, ‘आलोकपर्व’ तथा ‘कल्पलता’ (निबंध संग्रह)।
कुटज पाठ का सार
पर्वतों को शोभा-निकेतन कहा जाता है। हिमालय को पृथ्वी का मानदंड कहना सही होगा। इसे कालिदास ने भी यही नाम दिया था। हिमालय को देखकर समाधि में लीन महादेव की मूर्ति दिखाई देती है। शिवालिक की सूखी नीरस पहाड़ियों पर मस्त वृक्ष हैं। यहाँ की गर्मी और शुष्कता के बावजूद बहुत से वृक्ष जीवित रहते हैं। लेखक को इन वृक्षों का नाम पता नहीं है, लेकिन वे अनादिकाल से हैं।
इन्हीं वृक्षों में एक बहुत छोटा, ठिगना, चौड़ी पत्ती वाला वृक्ष है जो फूलों से लदा है। लेखक इस वृक्ष का नाम जानने की कोशिश करता है, लेकिन भूल जाता है। वे रूप से उनकी पहचान करते हैं। लेखक ने इस वृक्ष के लिए कई संस्कृतनिष्ठ नामों का विचार किया और मानता है कि नाम उस पद को व्यक्त करते हैं, जिसे समाज ने मान्यता दी है।
लेखक इसलिए इस वृक्ष को समाज द्वारा अनुमोदित नाम देने से परेशान है। जब लेखक इस गिरिकूट बिहारी के नाम को फिर से पूछता है, तो उसे अचानक याद आता है कि यह कूटज है। कुटज को भी संस्कृत के कवियों ने बहुत महत्व दिया है। कुटज बहुत महत्वपूर्ण है, इसलिए कालिदास ने मेघदूत में भी कुटज के पुष्पों का उल्लेख किया है। कुटज एक बड़भागी फूल है, जिसने कालिदास की मलिन तस्वीर को सहारा दिया था। कुटज के पुष्प इसलिए सम्मान के पात्र हैं। रहीम ने भी अपनी खराब मानसिक स्थिति से परेशान होकर एक जगह कुटज का प्रयोग किया है।
“कुटज” का अर्थ है “घट से उत्पन्न”। महर्षि अगस्त्य को भी घड़े से उत्पन्न ‘कुटज’ कहा जाता है। संस्कृत में कई शब्द हैं, जैसे “कुटज”, “कुटच” और “कूटच”। लेखक को संदेह है कि “कुटज” आर्यभाषा का संस्कृत शब्द है। जैसे संस्कृत में खेत बागवानी, फूलों और वृक्षों के लिए अधिकांश शब्द आग्नेय भाषा-परिवार से आते हैं। उन्हें लगता है कि ऑस्ट्रेलिया और एशिया महाद्वीप आपस में मिले हुए थे, लेकिन बाद में एक खतरनाक विस्फोट ने उन्हें अलग कर दिया। भारत में रहने वाले संथाल और मुंडा लोगों की भाषा ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले जंगली लोगों की भाषा से मिलती-जुलती है। पहले इस भाषा को ऑस्ट्रो-एशियाटिक कहा गया था। लेकिन अग्निकोण की भाषा होने के कारण इसे आग्नेय-परिवार भी कहा गया।धीरे-धीरे इसे कोल – परिवार की भाषा कहा जाने लगा।
लेखक को एक खड़ा पौधा दिखाई देता है जो नाम और रूप से अपनी अनवरत जीवनी-शक्ति घोषित कर रहा है। यही “कुटज” है जो हजारों वर्षों से खड़ा है और दारुण गर्मी में भी हरा-भरा है। अनेक शताब्दियाँ बीतने पर भी नाम नहीं बदला। उसकी हरे-भरे वनस्पति देखकर लेखक ईष्या होती है। लेखक ने इसी परिवेश में भगवान शिव की तपस्या की कल्पना की है। ‘कुटज’ के वृक्ष हिलकर अपने पुष्प महादेव को चढ़ाते हैं। कुटज ने कहा कि कठोर पत्थर को तोड़कर, पाताल की छाती चीरकर, अपना खाना जमा करो, तूफान झेलकर, आकाश को चूमकर खुशी खींच लो।
कुटज का कठिन उपदेश है कि जीना एक तपस्या है और एक कला भी है। याजवल्क्य ब्रहमवादियों में से एक थे। उन्होंने पत्नी को बताने की कोशिश की कि प्रेम हर जगह मतलब के लिए है। पश्चिम के हॉब्स और हेल्वेशियस जैसे विचारकों ने भी ऐसी बात कही। जिजीविषा और स्वार्थ से बड़ी कोई शक्ति नहीं है।लेखक ने “कुटज” का उदाहरण देते हुए बताया कि वह मनुष्य की तरह दूसरे द्वार पर भीख माँगने नहीं जाता, नीति या धर्म का उपदेश नहीं देता, अपनी उन्नति के लिए अधिकारियों के जूते नहीं चाटता, नीलम या माणिक जैसे धातुओं का उपयोग नहीं करता। वह प्रसन्न है। उसने अपने पितामह की तरह सिर्फ यही कहा कि चाहे सुख हो या दुख, प्रिय हो या अप्रिय, जो मिल जाए उसे गर्व से स्वीकार करो, हार मत मानो।
आज लोग इतिहास विधाता की योजना के अनुसार जीते हैं, न कि अपनी इच्छा से। मानव मन में सुख और दुख के दो विकल्प हैं। यदि आप अपने मन को नियंत्रित कर सकते हैं तो आप सुखी हैं। वह दुखी है जो अपने मन को नियंत्रित नहीं कर सकता। परवश होने का मतलब है चाटुकारिता करना या खुशामद करना। परवश व्यक्ति दूसरों के मन को खोलकर देखता है। अपने को छिपाने के लिए झूठ बोलता है और दूसरों को फँसाने के लिए जाल बिछाता है। इन सब झूठों से कुटज मुक्त है। लेखक ने उसकी तुलना राजा जनक से की है क्योंकि वह जनक के समान संपूर्ण भोगों को भोगकर भी उनसे मुक्त है।
शब्दार्थ
समाधिस्थ महादेव – समाधि में लीन शिव, रत्नाकर – सागर, सुदूर – बहुत दूर, चाटुकारिता – चापलूसी का भाव, गह्वर – गढ्ढा, अतल – अत्यधिक गहरा, शोभा – निकेतन – शोभारूपी घर, अलक – बाल, अलमस्त – मतवाला, हिमाच्छादित – बरफ़ से ढकी हुई, अवंधूत – संन्यासी, देशोद्धार – देश का उद्धार, द्वंद्वातीत – द्वंद्व से परे, अंतर्निरुद्ध – भीतरी रुकावट, लहिमायी – लहराती हुई, मदोद्धता – नशे या गर्व से चूर, मिथ्याचार – झूठा आचरण, विरुद – कीर्ति-गाथा, लोल – चंचल, उपहत – चोट खाया, दुरंत – जिसका पार पाना कठिन हो, स्फीयमान – फैलता हुआ, अनत्युच्च – जो बहुत ऊँचा न हो, विजितातपा – धूप को दूर करनेवाली, नितरां – बहुत अधिक, अवमानित – अपमानित, फकत – अकेला, मूर्धा – मस्तक, निपोरना – दाँत दिखाना, अविच्छेद्य – विच्छेद रहित।