Chapter 3 बिहारी के दोहे Class 10 Hindi Sparsh NCERT Summary
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Chapter 3 बिहारी के दोहे Class 10 Hindi Sparsh NCERT Notes
बिहारी के दोहे भिन्न-भिन्न विषय से संबंधित हैं। बिहारी मुख्य रूप से शृंगारपरक दोहों के लिए जाने जाते हैं किंतु उन्होंने लोक-व्यवहार, नीति ज्ञान आदि विषयों पर भी लिखा है।
- पहले दोहे में बिहारी लाल श्रीकृष्ण के तन पर ओढ़े हुए पीत वस्त्र की तुलना नीलमणि शैल पर पड़ने वाली सूर्य की आभा से कर रहे हैं।
- दूसरे दोहे में गर्मी की भीषणता का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि गर्मी ने वन को ऐसा तपोवन बना दिया है कि हिरन, बाघ, साँप और मोर जो स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे के शत्रु होते हैं, वे भी इकट्ठे बैठे हैं।
- तीसरे दोहे में गोपियों द्वारा कृष्ण की मुरली छिपा देने की चर्चा की गई है ताकि इस बहाने वे श्रीकृष्ण से बातचीत कर सकें।
- चौथे दोहे में नायक व नायिका का सगे-संबंधियों से घिरे होने पर नेत्रों से वार्तालाप का बखूबी चित्रण किया गया है।
- पाँचवें दोहे में जेठ माह की भीषण गर्मी का चित्रण किया गया है। यह गर्मी इतनी प्रचंड है कि छाया भी छाया की इच्छा करने लगती है।
- छठे दोहे में वियोगी नायिका की असमंजसपूर्ण स्थिति का भावपूर्ण वर्णन है।
- सातवें दोहे में कवि ने अपने पिता श्री केशवराय और भगवान कृष्ण को एक साथ अपना संरक्षक मानते हुए उनका आशीर्वाद चाहा है।
- आठवें दोहे में कवि प्रभु-प्राप्ति के लिए बाहरी दिखावे छोड़कर सच्ची भक्ति अपनाने पर बल देते हैं।
सोहत ओढैं पीतु पटु स्याम, सलौनैं गात।
मनौ नीलमनि-सैल पर आतपु परयौ प्रभात।।
शब्दार्थ: सोहत – शोभायमान होते हैं, सुंदर लगते हैं, ओढे – ओढ़े हुए, पीतु पटु – पीले वस्त्र, स्याम – साँवले (श्रीकृष्ण), सलौनैं – लावण्ययुक्त, गात – शरीर, मनौ – मानो, नीलमनि – नीलमणि, सैल – शैल, पर्वत, आतपु – धूप, प्रभात = प्रात:काल।
इस दोहे में बिहारी कहते हैं कि श्रीकष्ण ने अपने साँवले शरीर पर पीले वस्त्र धारण किए हुए हैं और वे इन वस्त्रों के कारण अत्यधिक सुंदर लग रहे हैं। इस वेश में वे इस प्रकार सुशोभित हो रहे हैं मानो प्रातःकालीन सूर्य की किरणें नीलमणि पर्वत पर पड़ रही हैं। अर्थात नीलमणि पर्वत पर प्रातःकाल की धूप स्वर्णिम आभा बिखेर रही हो।
काव्य सौंदर्य
- ब्रज भाषा का सहज एवं सरल प्रयोग किया गया है।
- ‘पीतु पटु’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘मनौ’ शब्द के प्रयोग के कारण यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार भी है।
- दोहा छंद का प्रयोग किया गया है।
कहलाने एकत बसत अहि मयूर , मृग बाघ।
जगतु तपोबन सौ कियौ दीरघ–दाघ निदाघ।।
शब्दार्थ: एकत – एक होकर, बसत – रह रहे हैं, अहि – साँप, मयूर – मोर, मृग – हिरण, जगतु – संसार, तपोबन – तपोवन, कियौ – करना, दीरघ – दीर्घ, दाघ – गर्मी।
कवि ने ग्रीष्म ऋतु की प्रचंडता का वर्णन किया है। वे कहते हैं कि ग्रीष्म ऋतु में अत्यधिक गर्मी के कारण ऐसे जीव; जैसे-साँप, मोर, हिरण और बाघ जिनके मध्य परंपरागत वैर-भाव है, वे भी आपसी शत्रुता को भुलाकर साथ-साथ निवास कर रहे हैं। इस प्रकार सारा जंगल ही तपोवन की भाँति हो गया है।
काव्य सौंदर्य
- ब्रज भाषा का सहज एवं सरल प्रयोग किया गया है।
- ‘मयूर मृग’, ‘दीरघ-दाघ’ में अनुप्रास अलंकार है।
- इसमें दोहा छंद का प्रयोग किया गया है।
बतरस-लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ।
सौंह करैं भौंहनु हँसै, दैन कहैं नटि जाइ।।
शब्दार्थ: बतरस – बात करने काआनंद, लाल – कृष्ण, मुरली – बाँसुरी, धरी – रखना, लुकाइ – छिपा दी, सौंह – सौगंध, भौंहनु – भौहों से, देन कहैं – देने के लिए कहना, नटि जाइ – मना कर देती हैं।
बिहारी जी कहते हैं कि राधा ने श्रीकृष्ण से बात करने के लालच में उनकी मुरली छिपा कर रख दी है। एक ओर वह कृष्ण के सामने बाँसुरी न चुराने की सौगंध खाती हैं। दूसरी ओर भौंहों से हँसकर संकेत भी देती हैं कि मुरली उन्हीं के पास है। जब कृष्ण उन्हें बाँसुरी देने को कहते हैं तब वे साफ इनकार कर देती हैं कि बाँसुरी उनके पास नहीं है। गोपियाँ ऐसा व्यवहार इसलिए करती हैं ताकि कृष्ण उनसे बातें करें।
काव्य सौंदर्य
- ब्रज भाषा का प्रयोग किया गया है और यह भावाभिव्यक्ति में सक्षम है।
- ‘लालच लाल’ में अनुप्रास अलंकार हैं।
- दोहा छंद का प्रयोग किया गया है।
- ‘लुकाइ’ और ‘जाइ’ तुकांत पद हैं।
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत,खिलत, लजियात।
भरे भौन मैं करत हैं नैननु हीं सब बात।।
शब्दार्थ: कहत – कहना, नटत – इंकार करना, रीझत – रीझना, खिझत – खीजना, मिलत – मिलना, खिलत – खिल जाना, लजियात – शर्माना, भौन – भवन, नैननु – नेत्रों में।
नायिका परिवार के सदस्यों के साथ घर में बैठी है। नायक ऐसे अवसर पर आँखों के संकेत से नायिका से प्रणय निवेदन करता है कि नायिका तुरंत मना कर देती है। नायक नायिका के मना करने के ढंग पर प्रसन्न हो जाता है। उसकी प्रसन्नता देखकर नायिका खीझ जाती है। तब दोनों की आँखें मिलती हैं और परस्पर स्वीकृति मिलने पर दोनों के चेहरे प्रसन्नता से खिल जाते हैं। नायिका लजा जाती है। इस प्रकार वे दोनों भरे हुए घर में नैनों के संकेत द्वारा बातचीत करते हैं।
काव्य सौंदर्य
- ब्रज भाषा का प्रयोग किया गया है|
- ‘भरे भौन’ में अनुप्रास अलंकार है।
- इसमें शृंगार रस की प्रधानता है।
- दोहा छंद का प्रयोग किया गया है तथा प्रथम पंक्ति में ध्वन्यात्मकता है।
बैठि रही अति सघन बन , पैठि सदन–तन माँह।
देखि दुपहरी जेठ की छाँहौं चाहति छाँह।।
शब्दार्थ: सघन – घना, पैठि – प्रवेश करके, सदन-तन – भवन के तन के भीतर, जेठ – गर्मी का महीना, चाहति – चाहती है, अति – बहुत, माँह – अंदर, छाँहौं – छाँह भी।
जेठ मास की भीषण गर्मी का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि इस समय धूप इतनी अधिक होती है कि आराम के लिए कहीं छाया भी नहीं मिलती। बाहर कहीं भी छाया तक नहीं दिखाई देती। ऐसा लगता है कि मानो छाया को भी छाँव की आवश्यकता महसूस होने लगी। अतः वह भी घने जंगलों में जाकर बैठ गई है। सूरज बिलकुल सिर के ऊपर होने के कारण छाया भी दुबक कर बैठ गई है। वृक्षों की छाया, घरों की छाया अपने घरों से बाहर नहीं आ पाती, भीतर ही रहती है।
काव्य सौंदर्य
- ब्रज भाषा का प्रयोग किया गया है।
- भाषा सहज-सरल होने के साथ-साथ प्रभावोत्पादक है।
- ‘देखि दुपहरी’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘सदन-तन’ में रूपक अलंकार है।
- दोहा छंद का प्रयोग हुआ है तथा ‘माँह छाँह’ तुकांत पद हैं।
कागद पर लिखत न बनत , कहत सँदेसु लजात।
कहिहै सबु तेरौ हियौ, मेरे हिय की बात।।
शब्दार्थ: कागद – कागज, लिखत – लिखना, सँदेसु – संदेश, लजात – लज्जा लगती है, तेरौ – तुम्हारा, हियौ – हृदय।
नायिका नायक को अपनी विरहावस्था का वर्णन करती हुई कहती है कि प्रेम-संदेश मुझसे कागज पर लिखा नही जाता और संदेश कहने में या फिर किसी दूत के द्वारा भेजने में भी लज्जा की अनुभूति होती है| इसलिए वह अपने प्रिय से कहती है कि मेरे दुख को तो आप समझ सकते हैं क्योंकि मेरे विरह में जो स्थिति आपके हृदय की है; आपके विरह में वही स्थिति मेरे हृदय की है।
काव्य सौंदर्य
- ब्रज भाषा का प्रयोग किया गया है। भाषा प्रभावोत्पादक है।
- द्वितीय पंक्ति में अतिशयोक्ति अलंकार है।
- इसमें वियोग श्रृंगार रस का सुंदर एवं स्वाभाविक चित्रण हुआ है।
- दोहा छंद का प्रयोग किया गया है।
प्रगट भए द्विजराज – कुल सुबस बसे ब्रज आइ ।
मेरे हरौ कलेस सब , केसव केसवराइ।।
शब्दार्थ: प्रगट भए – प्रकट होना, द्विजराज – ब्राह्मण, चंद्रमा, कुल – वंश, सुबस – अपनी इच्छा से, बसे – बसना, आइ – आकर, हरौ – दूर करो, कलेस – पीड़ा, केसव – श्रीकृष्ण, केसवराइ – केशवराय, बिहारी के पिता का नाम।
कवि ने अपने पिता और भगवान श्रीकृष्ण को एक साथ अपना संरक्षक मानते हुए उनसे निवेदन किया है कि पिता अपनी संतान का दुख स्वभाव से ही हरने वाला होता है। बिहारी अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि वे ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए और अपनी इच्छा से ब्रज में आकर बस गए। हे कृष्ण! आप तो केशव हैं और पिता भी केशवराय थे। अतः आप मेरे सभी पीड़ाओं को हर लीजिए अर्थात दूर कीजिए।
काव्य सौंदर्य
- ब्रज भाषा का प्रयोग किया गया है तथा वह भावाभिव्यक्ति में सफल है।
- ‘बसे ब्रज’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘केसव केसवराइ’ में यमक अलंकार है।
- दोहा छंद का प्रयोग किया गया है।
- आइ केसवराइ तुकांत पद हैं।
जपमाला , छापैं , तिलक सरै न एकौ कामु।
मन–काँचै नाचै बृथा, साँचै राँचै रामु ।।
शब्दार्थ: जपमाला – भगवान का नाम जपने की माला, छापैं – छापना, अंकित करना, तिलक – मस्तक पर लगाने वाला तिलक, सरै न – सिदध न होना, एकौ – एक भी, नाचै – नाचना, काँचै – कच्चा, बृथा – बेकार, साँचै – सच्चा, राँचै – प्रसन्न होना, राम् – भगवान राम, ईश्वर।
कवि मनुष्य को शिक्षा देते हुए कहते हैं कि ईश्वर प्राप्ति के लिए किए जाने वाले विभिन्न क्रियाकलाप यथा माला जपना, ईश्वर का नाम शरीर पर अंकित करना और मस्तक पर तिलक धारण करना, सब व्यर्थ हैं। इन बाह्य आडंबरों को करने से कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होगा। ऊपरी दिखावा, ढोंग आदि करने से ईश्वर प्रसन्न नहीं हो सकते। केवल कच्चे मन वाले लोग अर्थात जिनके मन में प्रभु के प्रति सच्ची भावना या आस्था नहीं है वही व्यर्थ के आडंबरों में भटकते रहते हैं। राम तो सच्ची भक्ति देखकर ही प्रसन्न होते हैं।
काव्य सौंदर्य
- ब्रज भाषा का सहज प्रयोग किया गया है।
- ‘राँचै रामु’ में अनुप्रास अलंकार है।
- दोहा छंद का प्रयोग हुआ है।
- कामु, रामु तुकांत पद हैं।